नरेंद्र सहगल
पूर्व में हुए असहयोग आंदोलन की विफलता से शिक्षा लेकर भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस ने अब एक और देशव्यापी आंदोलन करने की योजना बनाई. महात्मा गांधी जी को
इस नए, ‘सविनय
अवज्ञा आंदोलन’ का नेतृत्व
सौंप दिया गया. अतः गांधी जी ने 6 अप्रैल 1920 को सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत अपनी ऐतिहासिक दांडी
यात्रा के माध्यम से कर दी. गांधी जी ने सरकार द्वारा बनाए गए नमक कानून को तोड़ा
और देशवासियों से अंग्रेजों के बनाए गए काले कानूनों को तोड़कर सत्याग्रह में शामिल
होने का आग्रह किया. परिणामस्वरूप सारे भारत में शांतमय सत्याग्रह द्वारा सभी
प्रकार के तानाशाही कानूनों को तोड़ने का सिलसिला प्रारम्भ हो गया.
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का समर्थन
जो आंदोलन अंग्रेज सरकार के खिलाफ हो और स्वतंत्रता आंदोनल को एक कदम और
आगे बढ़ाने वाला हो उसमें स्वयंसेवक भाग न लें, यह कैसे सम्भव था. युवा स्वयंसेवकों
की टोलियां सत्याग्रह करने के लिए निश्चित स्थानों पर एकत्र होकर गांधी जी द्वारा
निर्देशित आंदोलन में सत्याग्रह करने लगीं. इस प्रकार के मनोबल और देशसेवा के भाव
देखकर संघचालकों की एक बैठक में निश्चित किया गया कि गांधी जी के नेतृत्व में
घोषित सत्याग्रह में संघ बिना शर्त भाग लेगा.
डॉक्टर हेडगेवार ने स्वयंसेवकों से कहा ‘आंदोलन में पूरी तरह समरस होने का प्रयास करना
चाहिए. सभी स्वयंसेवक व्यक्तिशः संघचालक की अनुमति से आंदोलन में भाग लें. स्वतंत्रता
आंदोलन किसी दल अथवा नेता का नहीं हो सकता. यह सभी देशवासियों का आंदोलन है, नेता और दल तो
बनते बिगड़ते रहेंगे, परन्तु स्वतंत्रता संग्राम तो सतत् चलता रहेगा. जब तक
विदेशी राज्य पूर्णतः धराशायी नहीं हो जाता, तब तक इस राष्ट्र यज्ञ में अपनी अलग-अलग डफली
बजाना दूरदर्शिता नहीं होगी. डॉक्टर जी ने स्पष्ट कर दिया कि गांधी जी के नेतृत्व
को सभी स्वीकार करें, भले ही कितनी ही मतभिन्नता क्यों न हो.
संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार ने स्वयं भी सत्याग्रह करके जेल जाने की
योजना बना ली. उन दिनों मध्य प्रांत की सरकार ने 1618 वर्गमील के जंगल को
प्रतिबंधित कर दिया था. कानून के तहत कोई भी व्यक्ति चारे के लिए घास और निर्माण
कार्य के लिए लकड़ी नहीं काट सकता था. फलतः अनेक लोगों के कारोबार प्रभावित हुए तथा
चारा-घास की कमी के कारण पशुपालन भी प्रभावित हुआ. अतः डॉक्टर हेडगेवार ने जंगल को
काटकर कानून का उल्लंघन करके सत्याग्रह करने का निर्णय लिया.
सत्याग्रह के पूर्व उन्होंने सरसंघचालक पद से त्यागपत्र दिया और अपने स्थान
पर डॉ. परांजपे को सरसंघचालक नियुक्त कर दिया. इस अवसर पर डॉक्टर जी ने स्पष्ट
शब्दों में कहा ‘हम लोग
जो इस स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले रहे हैं, सब एक देशभक्त नागरिक के नाते अपने व्यक्तिगत
स्तर पर ऐसा कर रहे हैं. संघ के विचारों एवं कार्यपद्धति में किसी प्रकार का कोई
परिवर्तन नहीं हुआ है और न ही हमारी उस पर से श्रद्धा डिगी है’.
डॉ. जी और हजारों स्वयंसेवक कारावास में
21 जुलाई को जंगल कानून तोड़ने का फैसला किया गया.
यह खुले मैदान में स्वयंसेवकों ने पहले भगवा ध्वज को प्रणाम करके पूजा की और फिर
सबको घास एवं लकड़ी काटने के लिए औजार दे दिए गए.
सत्याग्रह का स्थान यवतमाल से आगे दस किलोमीटर पर लोहारा जंगल के एक गांव
में था. इस सत्याग्रह को देखने के लिए 10 हजार से भी ज्यादा लोग उपस्थित थे. भारत माता की जय और
वंदेमातरम के उद्घोष के साथ डॉ. हेडगेवार और उनके साथियों ने जंगल की कटाई शुरु कर
दी. इस प्रकार जंगल का जंगली कानून टूट गया. सभी को गिरफ्तार कर लिया गया. उसी दिन
सायं को मुकद्दमा चला और डॉक्टर जी को 9 महीने का कठोर कारावास तथा अन्य साथियों को 4 महीने का ऐसा ही
कारावास दिया गया. यह जंगल सत्याग्रह सविनय अवज्ञा आंदोलन का सर्वाधिक सफल
सत्याग्रह माना गया. कांग्रेस ने भी डॉक्टर हेडगेवार के समर्थन में एक सभा का
आयोजन किया.
अपने सरसंघचालक की गिरफ्तारी और कठोर सजा के बाद स्वयंसेवकों ने भारी
संख्या में स्थान-स्थान पर सत्याग्रह करके स्वतंत्रता की अलख जगा दी. सरकार की ओर
से वीर सावरकर की पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा रखा था. संघ के स्वयंसेवकों ने इस
प्रकार के प्रतिबंधित साहित्य को सार्वजनिक स्थानों पर ऊंची आवाज में पढ़कर कानून
तोड़ना प्रारम्भ कर दिया. संघ के सरकार्यवाह जी.एम. हुद्दार, नागपुर के
संघचालक अप्पा साहब हल्दे, सिरपुर के संघचालक बाबूराव वैद्य, संघ के सरसेनापति मार्तण्डराव जोग के साथ संघ
के अन्य बड़े अधिकारियों सीता रामहेकर, विट्ठलराव गाडगे ने भी सत्याग्रह किया. इन सबको भी 4-4 मास की
कठोर-सश्रम सजा देकर जेल भेज दिया गया. इसी तरह डॉक्टर जी के दो अभिन्न साथी और
संघ के प्रमुख अधिकारी अप्पाजी जोशी तथा दादाराव परमार्थ ने भी अपने जत्थों के साथ
सत्याग्रह किया और जेल पहुंच गए. इनके अलावा अन्य अधिकारियों और स्वयंसेवकों की
संख्या का अनुमान लगाना कठिन काम था क्योंकि सबने अपनी संघ पहचान से ऊपर उठकर
कांग्रेस के कार्यकर्ता के रूप में सत्याग्रह किया था.
आंदोलन करने वाले स्वयंसेवकों पर पुलिस ने अत्याचार करने की सभी सीमाएं पार
कर दीं. सैकड़ों स्वयंसेवक जख्मी हुए. इनके इलाज का कोई प्रबन्ध प्रशासन की ओर से
नहीं किया गया. इनकी देखभाल के लिए संघ की ओर से ही एक चिकित्सकीय व्यवस्था ‘शुश्रूषा पथक’ नाम से बनाई गई.
मध्य प्रांत के लगभग एक दर्जन स्थानों पर की गई इस सेवा व्यवस्था में सौ से ज्यादा
स्वयंसेवक सक्रिय हो गए. स्वयंसवकों का यह दल प्रदर्शनों, यात्राओं, विरोध सभाओं के समय मौजूद रहकर जख्मियों को
उठाने और उनके उपचार की व्यवस्था करता था. उस समय के कार्यवाहक सरसंघचालक डॉक्टर
परांजपे के निजी क्लिनिक में यह सारी उपचार-व्यवस्था निःशुल्क की गई.
कारावास में भी संघ कार्य
कारावास में भी डॉक्टर जी ने संघ का काम करना नहीं छोड़ा. कारावास में
स्वयंसेवकों के साथ संघ के विरोधी भी थे. अनेक कांग्रेसी नेता ऐसे थे जो संघ की
प्रगति देखकर हताश हो रहे थे. परन्तु व्यक्तियों के पारखी डॉक्टर हेडगेवार ने सब
के साथ मित्रवत व्यवहार करके उनको संघ का समर्थक ही नहीं, अपितु स्वयंसेवक भी बना
लिया. हिन्दुत्व, हिन्दू राष्ट्र, पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ, संघ शाखा का महत्व और काम के ढंग इत्यादि
विषयों पर आनंदमय वातावरण में विस्तारपूर्वक चर्चा चलती रहती थी.
इसका असर यह हुआ कि कारावास में ही शाखा प्रारम्भ हो गई. प्रातः सभी लोग
पंक्तियों में खड़े होकर संघ-प्रार्थना करने लगे. ऐसी ही एक प्रार्थना सभा (शाखा)
में डॉक्टर जी ने भाषण दिया ‘‘अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लड़ाई का आज पहला अथवा अंतिम दिन
नहीं है. अंग्रेजी दमन तो सिर्फ इस बात का सूचक है कि विदेशी सरकार कितनी
अलोकप्रिय है, कितनी
भयभीत है और कितनी स्वतंत्रता विरोधी है. हमें इस पर विचार करना होगा कि क्यों
मुट्ठी भर लोगों ने हमें अपने आधीन बना रखा है. एक दिन के अति उत्साह और उत्तेजित
भाव से स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी’’.
जेल में रहते हुए भी डॉक्टर जी बाहर हो रहे संघ के काम की चिंता करते रहते
थे. संघ के दो प्रमुख अधिकारी डॉक्टर परांजपे तथा भाऊराव कुलकर्णी जेल में आकर संघ
की प्रगति के समाचार देते रहते थे. डॉक्टर जी को यह जानकर अत्यंत हर्ष होता था कि
उनके बिना भी संघ का विस्तार हो रहा है तथा गणवेशधारी स्वयंसेवकों की संख्या
लगातार बढ़ती जा रही है.
परतंत्रता की बेडियां तोड़ने का आह्वान
प्रत्येक वर्ष दशहरे के दिन संघ के गणवेशधारी स्वयंसेवकों का पथ-संचलन
लोगों के आकर्षण का केन्द्र होता था. इस युवा हिन्दू शक्ति को कदम से कदम मिलाकर
घोष की आवाज के साथ परेड करते देखकर हिन्दुओं को विश्वास होता था कि हम भी सुरक्षित
हैं और संगठित हो सकते हैं. 1930 में भी दशहरे के दिन पथ-संचलनों के कार्यक्रम हुए परन्तु इस
बार सभी शाखाओं में एक पत्रकनुमा पेपर पढ़ा गया. यह पत्रक राष्ट्रभक्ति के भावों से
तो भरा हुआ था ही, इसमें स्वतंत्रता संग्राम में पूरी ताकत से कूद पड़ने का आह्वान
भी किया गया था. ‘जब तक हमारी मातृभूमि परतंत्रता की बेड़ियों से
मुक्त नहीं हो जाती और राष्ट्र सबल और वैभवशाली नहीं हो जाता, हमें सुख की
तनिक भी लालसा करने का कोई अधिकार नहीं. वह संतान निकृष्ट होती है जो अपनी माता को
दुःख-दर्द, अपमान और
दासता में छोड़कर भौतिक सुखों की ओर भागती है. वास्तविक सुख तो इन बेड़ियों को तोड़ने
और राष्ट्र को स्वतंत्र करने में ही है’.
डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार एक सेवाभावी नेता ही नहीं, वे एक अतुलनीय
राष्ट्रभक्त एवं महान लोकसंग्रही भी थे. चाहे क्रांतिकारी दल हो, कांग्रेस का मंच
हो, धरने-प्रदर्शन
हों, सत्याग्रह हो या
कारावास हो, उन्होंने सब जगह से अनेक युवकों तथा समाज में प्रतिष्ठा रखने वाले
लोगों को खोजकर अपनी विचारधारा से सहमत करवाकर राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगा
दिया.
14 फरवरी 1930 को डॉक्टर हेडगेवार को
कारावास से रिहा कर दिया गया. अकोला एवं वर्धा में डॉक्टर जी के स्वागत में
शोभायात्रा निकाली गई. इनमें अनेक कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता भी शामिल हुए. 17 फरवरी 1931 को नागपुर
पहुंचने पर उनका स्वागत हुआ. नागपुर के हाथीखाना मैदान में एक स्वागत सभा हुई, जिसमें डॉक्टर
परांजपे ने सरसंघचालक पद की धरोहर वापस डॉक्टर जी को सौंप दी. यह भावुक दृश्य ऐसा
था मानों भगवान राम के वनवास के बाद वापस अयोध्या लौटने पर उनके भ्राता भरत ने
श्रीराम की धरोहर ‘खड़ाऊं’ को वापस करके अयोध्या के सिंहासन पर उनको विराजमान कर दिया
हो.
.....................शेष कल.
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा स्तंभकार है )
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