Skip to main content

कश्मीर : अतीत से आज तक – भाग दो


वीरव्रती दिग्विजयी कश्मीर
नरेन्द्र सहगल

हम सभी भारतीयों को कश्मीर की गौरवमयी क्षात्र परंपरा और अजय शक्ति पर गर्व है। विश्व में मस्तक ऊंचा करके 4000 वर्षों तक स्वाभिमान पूर्वक स्वतंत्रता का भोग कश्मीर ने अपने बाहुबल पर किया है। इस धरती के हिन्दू शूरवीरों ने कभी विदेशी आक्रमणकारियों और उनके शस्त्रों के सम्मुख मस्तक नहीं झुकाए।

मध्य एशिया तक फैला कश्मीर राज्य

अनेक शताब्दियों तक इस वीरभूमि के रणबांकुरों ने विदेशों से आने वाली घोर रक्तपिपासु तथा जालिम कहलाने वाली जातियों और कबीलों के जबरदस्त हमलों को अपनी तलवारों से रोका है। आधुनिक इतिहास के पन्ने भी साक्षी हैं कि कश्मीर  की खड़ग के वार मध्य एशिया के सुदूर क्षेत्रों तक पड़े थे। कश्मीर की इस दिग्विजयी विरासत को नकारा नहीं जा सकता।

सनातन कश्मीर का विस्तृत इतिहास राजतरंगिणी नामक ग्रंथ में मिलता है। यह सारा इतिहास महाभारत काल से प्रारम्भ होता है। इस दिग्विजयी कालखंड का प्रारंभ गोनंद नामक सम्राट के शासनकाल में हुआ था। पाण्डव वंश के राजाओं ने भी कश्मीर पर राज किया। पाण्डव नरेश संदीपन की देखरेख में ही प्रसिद्ध शंकराचार्य मंदिर का निर्माण हुआ था। संदीपन के समय कश्मीर राज्य की सीमाएं आज के गंधार (अफगानिस्तान) से कन्नौज तक फैली हुई थीं। इसी वंश परंपरा के एक राजा भीमसेन ने सैन्यशक्ति के बल पर मध्य एशिया के बड़े क्षेत्रों पर शासन किया था। इस कालखण्ड में पूरे भारत में एक ही प्रकार की राज्यव्यवस्था होने के प्रमाण मिलते हैं।

इतिहासकार कल्हण के अनुसार मगध के सम्राट अशोक (250 ईसा पूर्व) ने कश्मीर को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया। राजा अशोक ने ही श्रीनगरी (श्रीनगर) शहर को बसाया था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्येनसांग, जो कश्मीर में कई वर्ष रहा था, ने लिखा है कि अशोक के राज्यकाल में पांच हजार बौद्ध भिक्षुओं को कश्मीर में बसाया गया था। उल्लेखनीय है कि इन बौद्ध उपासकों और स्थानीय शिव उपासकों में कभी भी संघर्ष नहीं हुआ। स्वयं राजा अशोक ने शिव की उपासना की।

सम्राट अशोक के बाद उसका पुत्र जालौक कश्मीर के सिंहासन पर बैठा। प्रतिदिन शिव की पूजा अर्चना करने वाला राजा जालौक एक निडर एवं वीर शासक था। जालौक के नेतृत्व में कश्मीरी सैनिकों ने अनेक बार विदेशी आक्रमणों से कश्मीर घाटी को पूर्णरूप से सुरक्षित रखा।


  हूणों और कुषाणों का भारतीयकरण

राजा जलौक के पश्चात तीन शताब्दियों तक कश्मीर में किसी प्रतिभाशाली शासक के ना होने के कारण राज्यव्यवस्था चरमरा गई। कश्मीर पर विदेश (तुर्किस्तान) से आए कुषाण जाति के आक्रान्ता राजा कनिष्क ने सैन्यबल से अपना आधिपत्य जमा लिया। राजनीति, कूटनीति और सैन्य अभियान में सिद्धहस्त कुषाण राजाओं पर भारतीय संस्कृति (कश्मीरियत) का प्रभाव पड़ा। कनिष्क ने बौद्धमत अपना लिया और इसे राजधर्म घोषित कर दिया। इसी कालखण्ड में तृतीय अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध परिषद का सम्मेलन कश्मीर में हुआ।

तुर्क - कुषाण राजाओं के बौद्धमत को स्वीकार करते ही भारत में विदेशी/विधर्मी कुषाण जाति का भारतीयकरण हो गया और बौद्ध मत दूरस्थ क्षेत्रों, लंका, बर्मा, जावा, केंद्रीय एशिया, तिब्बत और चीन तक फैला।

छठी शताब्दी के प्रारंभ (525 ई॰) में हूणों ने कश्मीर पर विजय प्राप्त कर ली। हूणों का नेता मिहिरकुल,  कश्मीर के इतिहास में ‘क्रूर शासक’ के नाते जाना जाता है। उसने बौद्ध मत एवं शैवमत के उपासकों पर जघन्य अत्याचार शुरू कर दिए। वास्तव में यह राजनीतिक षड्यंत्रों के सहारे ही कश्मीर पर अपना अधिपत्य जमाने में सफल हुआ था।

उस समय कश्मीर में शैवमत इतना प्रभावी था कि शिव उपासकों की संगठित शक्ति ने मिहिरकुल को शिव की शरण में आने के लिए बाध्य कर दिया। उसने ना केवल शैवमत अपनाया, अपितु प्रसिद्ध मिहिरेश्वर मंदिर का निर्माण भी करवाया। यह मंदिर आजकल पहलगांव में मामलेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार कनिष्क और उसकी कुषाण जाति और मिहिरकुल तथा उसकी हूण जाति का भी भारतीयकरण कश्मीर की धरती पर ही हुआ।

हिमालय से सुदूर दक्षिण तक

राजा कनिष्क के प्रयासों के फलस्वरूप बौद्ध मत अफगानिस्तान एवं तुर्किस्तान तक फैल चुका था। अतः कनिष्क के पश्चात कश्मीर के सिंहासन पर बैठे प्रतिभाशाली राजा मेघवाहन ने भी बौद्धमत के प्रचार हेतु एक अनूठा अभियान प्रारंभ किया जो विश्व के इतिहास में अतुलनीय है। उसने समूचे विश्व में प्राणी हिंसा के निषेध का निश्चय करके कश्मीर में पशुओं के वध पर प्रतिबंध लगा दिया।

तत्पश्चात मेघवाहन ने इस कार्य को संपन्न करने के लिए दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। कश्मीर के राजभवन पर जो ध्वज (भगवा) लहराता था, उसका ध्वजदण्ड राजा मेघवाहन को श्रीलंका के राजा ने प्रदान किया था (राजतरंगिणी 3/27)। हिमालय से सुदूर दक्षिण तक भारत के एकत्व का यह एक अनूठा उदाहरण है।

मेघवाहन के कालखण्ड के बाद कश्मीर के इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर कर्कोटा वंश का 254 वर्षों का राज्य स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है। इसी वंश में चन्द्रापीड़ नामक राजा ने कश्मीर में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की (सन् 713 ई॰)। इसने चीन के राजदरबार में अपना एक दूत इस आशय से भेजा कि चीन के सहयोग से अरब से युद्ध करें। इसी राजा के कालखण्ड में अरब की ओर से होने वाले आक्रमणों पर नकेल कसी गई।

पराक्रमी योद्धा सम्राट ललितादित्य और कर्मयोगी अवन्तिवर्मन

साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है (आठवीं शताब्दी)। इस सम्राट का सैंतीस वर्षों का राज्यकाल उसके सफल सैनिक अभियानों, अद्भुत युद्ध कौशल और विश्वविजेता बनने की दृढ़ इच्छा से पहचाना जाता है। इसका राज्य क्षेत्र पूर्व में तिब्बत से लेकर पश्चिम के इरान और तुर्कीस्तान तक तथा उत्तर में मध्य एशिया से लेकर दक्षिण में उड़ीसा और द्वारिका समुद्र तटों पर पहुंच गया था।

सम्राट ललितादित्य का अत्यंत सुंदर और चिरस्मरणीय कार्य है। उसके द्वारा निर्मित विशाल मार्तण्ड मंदिर, जिसे सम्राट ने भगवान सूर्य देव को समर्पित किया था। सम्राट ललितादित्य एक अद्वितीय योद्धा, विजेता, वास्तुकला प्रेमी एवं साहित्य प्रेमी तो था ही, वह एक अतिकुशल प्रशासक भी था। अपने राज्य में उसने किसी भी प्रकार के विद्रोह, आंतरिक संघर्ष और सांप्रदायिक वैमनस्य को उभरने नहीं दिया। 
सम्राट ललितादित्य के पश्चात कश्मीर की राजगद्दी पर कर्मयोगी सम्राट अवन्तिवर्मन का अट्ठाइस वर्षों का शासनकाल विशेष महत्व रखता है। रणक्षेत्र में अपना समय बिताने के स्थान पर उसने अपने राज्य के विकास कार्यों की और ध्यान दिया। उसने सारे प्रदेश में जन-सुविधाएं जुटाने हेतु अनेक परियोजनाएं प्रारंभ की। उसने अनेक मठ मंदिर अपनी देखरेख में बनवाए।

अवन्तिवर्मन के पश्चात उसका पुत्र शंकरवर्मन राज्यसिंहासन पर बैठा। इस सम्राट ने भी अपने राज्य को अफगानिस्तान तक मजबूत कर लिया। उल्लेखनीय है कि सम्राट ललितादित्य के समय कश्मीर सैन्य दृष्टि से शक्तिशाली बना। सम्राट अवन्तिवर्मन के समय कश्मीर आर्थिक दृष्टि से संपन्न हुआ, परंतु शंकरवर्मन के समय कश्मीर दोनों ही क्षेत्रों में प्रगति करने लगा।

विजय के बाद पराजय का युग

कश्मीर के इतिहास का एक उज्ज्वल अध्याय यह भी है कि इरान, तुर्कीस्तान तथा भारत के कुछ हिस्सों को अपने पांव तले रौंदने वाला सुल्तान महमूद गज़नवी  दो बार कश्मीर की धरती से पराजित होकर लौटा। कश्मीर में इस शौर्य को इतिहास के पन्नों पर लिखा गया महाराज संग्रामराज के शासनकाल में। इस शूरवीर राजा ने कश्मीर प्रदेश पर सन् 1003 ई॰ से सन् 1028 तक राज किया। महमूद गज़नवी का अंतिम आक्रमण भारत पर 1030 ई॰ में हुआ था।

संग्रामराज द्वारा महमूद गज़नवी के साथ लड़े गए दोनों युद्धों में काबुल के राजवंश के अंतिम हिंदू राजा त्रिलोचन पाल ने बहादुरी से साथ दिया। त्रिलोचन पाल ने प्रबल मुस्लिम आक्रमणों को विफल करने में सफलता पाई थी। इसके बाद सन् 1128 से सन् 1150 तक कश्मीर में राजा जयसिंह का राज रहा।

इस कालखण्ड में कश्मीर पर विदेशी राजाओं विशेषतया मुस्लिम सुल्तानों की कुदृष्टि पड़ चुकी थी। इसी समय में कश्मीर के एक अत्यंत विलासी हिंदू राजा हर्षदेव की कमजोर मानसिकता एवं अव्यवहारिक उदार नीतियों के दुष्परिणाम सामने आने लगे। कश्मीर की सेना और प्रशासन में पेशेवर मुस्लिम सैनिकों का प्रवेश बढ़ता चला गया।

कश्मीर में विकसित हुई इस नई उदारता ने कश्मीर की पारंपरिक एवं स्वाभाविक एकता को भंग करना प्रारंभ किया। कश्मीर की शक्ति घटनी शुरू हो गई। सहअस्तित्व की भावना में दरारें पड़ गई। आंतरिक संघर्षो की शुरुआत हो गई। बलात् धर्मान्तरण का जहर फैला और हिन्दू कश्मीर को मुस्लिम कश्मीर बनाने का मार्ग प्रशस्त होता चला गया।

Comments

Popular posts from this blog

विजयादशमी पर विशेष

राष्ट्र–जागरण के अग्रिम मोर्चे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नरेन्द्र सहगल वर्तमान राजनीतिक परिवर्तन के फलस्वरूप हमारा भारत ‘नए भारत’ के गौरवशाली स्वरूप की और बढ़ रहा है। गत् 1200 वर्षों की परतंत्रता के कालखण्ड में भारत और भारतीयता की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले करोड़ों भारतीयों का जीवनोद्देश्य साकार रूप ले रहा है। भारत आज पुन: भारतवर्ष (अखंड भारत) बनने के मार्ग पर तेज गति से कदम बढ़ा रहा है। भारत की सर्वांग स्वतंत्रता, सर्वांग सुरक्षा और सर्वांग विकास के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास हो रहे हैं। वास्तव में यही कार्य संघ सन् 1925 से बिना रुके और बिना झुके कर रहा है। विजयादशमी संघ का स्थापना दिवस है। अपने स्थापना काल से लेकर आज तक 94 वर्षों के निरंतर और अथक प्रयत्नों के फलस्वरूप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र जागरण का एक मौन, परन्तु सशक्त आन्दोलन बन चुका है। प्रखर राष्ट्रवाद की भावना से ओतप्रोत डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 में विजयादशमी के दिन स्थापित संघ के स्वयंसेवक आज भारत के कोने-कोने में देश-प्रेम, समाज-सेवा, हिन्दू-जागरण और राष्ट्रीय चेतना की अल...

कश्मीर : अतीत से आज तक – भाग तीन

कट्टरपंथी धर्मान्तरित कश्मीर नरेंद्र सहगल सारे देश में चलती धर्मान्तरण की खूनी आंधी की तरह ही कश्मीर में भी विदेशों से आए हमलावरों की एक लंबी कतार ने तलवार के जोर पर हिंदुओं को इस्लाम कबूल करवाया है। इन विदेशी और विधर्मी आक्रमणकारियों ने कश्मीर के हिंदू राजाओं और प्रजा की उदारता, धार्मिक सहनशीलता, अतिथिसत्कार इत्यादि मानवीय गुणों का भरपूर फायदा उठाया है। यह मानवता पर जहालत की विजय का उदाहरण है। हालांकि कश्मीर की अंतिम हिन्दू शासक कोटा रानी (सन् 1939 ) के समय में ही कश्मीर में अरब देशों के मुस्लिम व्यापारियों और लड़ाकू इस्लामिक झंडाबरदारों का आना शुरू हो गया था, परंतु कोटा रानी के बाद मुस्लिम सुल्तान शाहमीर के समय हिंदुओं का जबरन धर्मान्तरण शुरू हो गया। इसी कालखण्ड में हमदान (तुर्किस्तान–फारस) से मुस्लिम सईदों की बाढ़ कश्मीर आ गई। महाषड्यंत्रकारी सईदों का वर्चस्व सईद अली हमदानी और सईद शाहे हमदानी इन दो मजहबी नेताओं के साथ हजारों मुस्लिम धर्मप्रचारक भी कश्मीर में आ धमके (सन् 1372 )। इन्हीं सईद सूफी संतों ने मुस्लिम शासकों की मदद से कश्मीर के गांव-गांव में मस्जिदे...

स्वतंत्रता संग्राम में सामूहिक आत्मबलिदान का अनुपम प्रसंग

इतिहास साक्षी है कि भारत की स्वतंत्रता के लिए भारतवासियों ने गत 1200 वर्षों में तुर्कों, मुगलों, पठानों और अंग्रेजों के विरुद्ध जमकर संघर्ष किया है।  एक दिन भी परतंत्रता को स्वीकार न करने वाले भारतीयों ने आत्मबलिदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । मात्र अंग्रेजों के 150 वर्षों के कालखंड में हुए देशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम में लाखों बलिदान दिए गये । परन्तु अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए सामूहिक आत्मबलिदान ने लाखों क्रांतिकारियों को जन्म देकर अंग्रेजों के ताबूत का शिलान्यास कर दिया ।   जलियांवाला बाग़ का वीभत्स हत्याकांड जहाँ अंग्रेजों द्वारा भारत में किये गये क्रूर अत्याचारों का जीता जागता सबूत है । वहीं ये भारतीयों द्वारा दी गयी असंख्य कुर्बानियों और आजादी के लिए तड़पते जज्बे का भी एक अनुपम उदाहरण है । कुछ एक क्षणों में सैकड़ों भारतीयों के प्राणोत्सर्ग का दृश्य तथाकथित सभ्यता और लोकतंत्र की दुहाई देने वाले अंग्रेजों के माथे पर लगाया गया ऐसा कलंक है जो कभी भी धोया नहीं जा सकता । यद्यपि इंग्लैण्ड की वर्तमान प्रधानमंत्री ने इस घटना के प्रति खेद तो जताया है लेकिन क्षमाय...